अवसर न मिलने की शिकायत अवसरवादी लोग करते हैं। मुझे कदम कदम पर अवसर मिले,
बाँहें फैलाए। मुझे धीरे-धीरे यह भी पता चला कि किसी भी लेखक की सर्वश्रेष्ठ
प्रतिभा किन्हीं विशेष अवसरों पर उरूज पर होती है। ये अवसर हैं नए साल की
शुभकामनाएँ, होली-दीवाली-ईद-बैसाखी आदि त्योहारों की बधाई, मुंडन-कनछेदन-शादी
आदि संस्कारों के निमंत्रण-पत्र, शोक-संदेश, प्रेम-पत्र आदि। इन मौकों पर अनेक
लेखकों ने शब्द की सार्थकता और मार्मिकता प्रमाणित की है। यह बात मैं अनुभव से
कह सकता हूँ। मैं स्वयं इस लेखन से जुड़कर वर्षों तक माँ भारती का भंडार भरता
रहा। ऐसे जनोन्मुख लेखन में मेरा भी कालजयी योगदान है।
वैसे तो मेरे लेखन के अनेक स्वर्णिम क्षण हैं, लेकिन मैं केवल दो-तीन आयामों
तक इसे सीमित रखूँगा। अगर कोई मेरे इस लेखन पर शोध करना चाहे तो शीर्षक होगा -
विदा से अंतिम विदा तक।
दरअसल, ऐसे जनोन्मुख लेखन से जुड़े लोग मूक सेवक होते हैं। अपना नाम नहीं चाहते
- एक तरह के लोक साहित्यकार।
किसी समय निमंत्रण-पत्रों में राष्ट्रीय महत्व प्राप्त इन पंक्तियों का लेखक
कौन है, आज कोई नहीं बता सकता : 'भेज रहा हूँ नेह निमंत्रण प्रियवर तुम्हें
बुलाने को, हे मानस के राजहंस तुम भूल न जाना आने को।' कोई इन्हें सामान्य
पंक्तियाँ समझने की भूल न करे। एक विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग ने तो बाकायदा
इस पर सेमिनार कराया था कि 'हे मानस के राजहंस' होगा या 'हो मानस के राजहंस'
होगा। पूरे दिन की उच्चस्तरीय बहस के बाद तीन प्रोफेसरों वाली बेंच ने स्पष्ट
निर्णय सुनाया था। उनके अनुसार इसमें कुछ भी स्पष्ट नहीं है। दोनों ही सही हो
सकते हैं।
बहस करते हुए एक अध्यापक ने अद्भुत शोध किया था कि यह श्रेष्ठ कविता संभवतः
तुलसीदास की है। रामचरितमानस और मानस में साम्य है। इतने बड़े कवि के लिए कुछ
भी कर गुजरना असंभव नहीं। किसी ने उनकी कविता का खड़ी बोली में अनुवाद कर दिया
है। उस बहस के बाद निमंत्रण-पत्रों में विकसित हिंदी-कविता के प्रति मेरा आदर
बढ़ गया था।
इस बात को लेकर आप अधिकांश हिंदी अध्यापकों के प्रति सुखसंतप्त महानुभूति से
खुद को भर सकते हैं कि उनके होने मात्र से मुहल्ले या कॉलोनी में भाषा और
साहित्य का स्तर कहाँ से कहाँ पहुँच जाता है। उनकी सबसे बड़ी उपयोगिता यह है कि
शादी-ब्याह वगैरह के मौके पर लीक से हटकर कार्ड का मैटर बना दें। कल्पना करना
कठिन ही होगा कि लीक के भीतर घुसकर होने वाली शादियों के कार्ड लीक से हटकर
बनते हैं। वाह!
वैसे यह बहुत आनंदपूर्ण काम है। मनोरंजन शब्द ने आनंद को भगा दिया है, इसलिए
यह मनोरंजक काम है। कुछ गैरजिम्मेदार अध्यापकों को छोड़कर बहुतेरे ऐसे जनोपयोगी
साहित्य की रचना और इसी स्तर की अध्यापन-पद्धति से शिक्षा का ललाट सपाट कर रहे
हैं। फिर भी, इस क्षेत्र में होने वाले नूतन प्रयोगों को नजरंदाज नहीं किया जा
सकता। जैसे 'मेले मामा की छादी है। जलूल जलूल आना' ...एक ऐसा ही विचारोत्तेजक
प्रयोग है। विदाई के लिए 'भीगी पलकें' या 'तारों की छाँव में' का इस्तेमाल भी
चर्चित रहा है।
एक बार विदाई के लिए 'पालगोमरा की पालकी' का भी इस्तेमाल एक जादुई अध्यापक ने
किया था। इस प्रयोग का जर्मन भाषा में अनुवाद भी हुआ।
ऐसे ही मौलिक प्रयोग करने वाले एक गुरुदेव के संरक्षण में मुझे इस महान लेखन
का गुरुमंत्र मिला था। यह शिक्षा आगे बहुत काम आई। गुरुदेव 'वियोगी होगा पहला
कवि' से 'वियोगी होगा पहला कार्डकार' तक आ चुके थे। यह शब्द साहित्यकार के वजन
पर है। वैसे कुछ लोग अपने लेखन में भी कार्ड-मैटर ही लिख रहे हैं।
बहरहाल, किस्सा यह कि गुरुदेव एक लड़की से बेपनाह किस्म का प्यार करते थे। इतना
कि एक दिन वह लड़की पनाह माँगने लगी। गुरुदेव ने 'आह और पनाह' शीर्षक से एक
लंबी कविता भी लिखी। कविता मुहल्ले में फेमस हुई। फिर एक दिन लड़की का पिता
आया। उसने कहा कि आपकी किस्मत भले न अच्छी हो, आपकी हिंदी अच्छी है। एक शादी
के निमंत्रण-पत्र का मैटर बना दीजिए। पूछा गया कि किसकी? जवाब में पिता ने
अपनी लड़की का नाम बताया।
गुरुदेव के अनुसार उन्होंने दिल पर लोहा, कलेजे पर पत्थर, दिमाग पर रद्दी
किताबें रखकर मैटर बनाया। वह अपना लिखा कार्ड लेकर शादी में गए। दबाकर खाना
खाया। लिफाफा दिया। घर लौटे। मैंने पूछा कि वह बेपनाह प्रेम कहाँ चला गया था।
वह मुस्कुराए थे, ऐसा है कि प्रेमिका को भूलने के नुस्खों पर एक लंबा लेख लिख
रहा हूँ। एक नुस्खा बताता हूँ। मैंने एकांत में लड़की की फोटो को घृणा से देखा
: जा, तू मेरे लायक थी ही नहीं। हह। हुह। हुम्म। कपड़े पर छूटा प्रेम का दाग
साबुन से और मन पर छूटा दाग घृणा से दूर होता है। मैंने उसकी कल्पना एक
दुश्चरित्र लड़की के रूप में की। ऐसा करने से मन को सुख मिलता है। प्रेमिका को
भूलने में मदद मिलती है। जो खुद को हासिल न हो सकें, वे लड़कियाँ चरित्रहीन ही
होती हैं... ऐसा अनुभवी समाज का कहना है।
ऐसे चरित्रवान गुरु ने मुझे स्वर्णिम लेखन के विविध आयाम समझाए। उनकी सलाह पर
चलकर कुछ समय बाद मुझे प्रेम-पत्र की विधा में उदीयमान या नवोदित रचनाकार मान
लिया गया। मेरी विनम्रता देखिए कि मैं चुपचाप प्रेम-पत्र साधना में लगा रहता
था।
मुझे लेकर आलोचक-प्रेमकार दो गुटों में बँट गए। एक का कहना था कि यह लेखक
शोक-प्रस्ताव विधा में भी हाथ आजमा सकता है। बाद में मैंने आजमाए भी। एक जगह
तो मैं लोकप्रियता के शिखर पर जा पहुँचा। जिस लड़की को मैं पत्र लिखता था, वह
अपने साहित्यप्रेमी पिता को भी पढ़वा देती थी। आलम यह कि लड़की से अधिक उसके
पिता को मेरे प्रेम-पत्रों की प्रतीक्षा रहने लगी। उन दिनों मेरी इच्छा होती
कि 'मेरे लोकप्रिय प्रेम-पत्र' शीर्षक से एक किताब छपा डालूँ।
लड़की के पिता कहते कि वैसे तो लड़का लंपट है, मगर भाषा बहुत अच्छी है। वाक्य
लच्छेदार बनाता है। विदेशी भाषाओं के उद्धरण भी देता है। बिट्टो से अगले दिन
मिलने का समय तय करते हुए विखंडन और भूमंडलीकरण तक जा पहुँचता है... और क्या
चाहिए...
पिता कभी-कभार टाइप के भूतपूर्व फ्रीलांसर थे। वह एक फ्रीलांसर प्रेमी का
संघर्ष भलीभाँति समझते थे। उनका कहना था कि जब लेखन में कुछ लंपट केवल इस आधार
पर सम्मानित हैं कि उनकी भाषा अच्छी है, तब प्रेम में ऐसा क्यों नहीं हो सकता।
उनकी पूरी सहानुभूति मुझे मिली। बस बिट्टो नहीं मिली। कहना न होगा कि मुझ पर
क्या बीती। फिर मैंने दूसरी परंपरा की खोज की। अब मेरे प्रेम-पत्र दूसरी के
पास पहुँचने लगे। मैंने सुख और शोक दोनों को साध लिया।
बहरहाल, यह अभ्यास मेरे बहुत काम आया। दिल्ली में जब मैं एक प्रतिष्ठित
पुरस्कार देने वाली संस्था में नौकरी करने गया तो पूछा गया था कि क्या आपको
प्रशस्ति-पत्र और शोक-संदेश लिखने का अनुभव है। जब मैंने कारण जानना चाहा तो
बताया गया कि हम प्रायः उम्रदराज लोगों को ही पुरस्कार देते हैं। तय करते के
साथ प्रशस्ति-पत्र और शोक-संदेश लिखवाकर रख लेते हैं। जाने कब अपूरणीय क्षति
हो जाए। प्रशस्ति तो खैर कई बार लेखक खुद लिखकर दे देता है, मगर शोक-संदेश
हमें तैयार कराना पड़ता है। शोक-संदेश की गुणवत्ता की जाँच के लिए हमने दो
सदस्यीय शोकपीठ बना रखी है। यह बात उन्होंने उल्लास के साथ कही। मैंने उन्हें
आश्वासन दिया कि मैं शोकपीठ को खुश रखूँगा। साक्षात्कार लेने वाले एक शख्स ने
कहा कि कल एक शोक-संदेश लिखकर दिखाना। मैं सिर हिलाकर शोकाकुल हुआ। मुझे काम
मिल गया। अन्य दायित्वों के साथ मुझे 'शोक प्रकाशन प्रभारी' बनाया गया।
यहाँ भी मेरे गुरु की शिक्षा काम आई। गुरु ने कहा था कि अगर अच्छा शोक-संदेश
लिखना हो तो अच्छे से मूड बनाना। उदास कॉफी पीना। पुरस्कृत या पुरस्कारातुर
कविताएँ पढ़ना। शोक के मैनेजमेंट पर विचार करना। मैंने ऐसा ही किया। अगले दिन
लिखकर ले गया। शोकपीठ के दोनों जनों ने खुशी जाहिर की। मगर चंद हिदायतें दीं।
मैंने संदेश शब्द में स पर बिंदी लगाई थी। वे बोले कि 'स' के आगे आधा 'न'
लगाओ। हम आदमी का मरना सहन कर सकते हैं, भाषा का मरना नहीं। पर्यायवाची तैयार
करो। निधन, नहीं रहे, देहावसान, महाप्रयाण, देहांत के अलावा भी खोजो... मृत
लेखक के लेखन में भले वैविध्य न हो, उससे जुड़े शोक में वैरायटी होनी चाहिए...
मैंने उत्साह से कहा कि यह वाक्य कैसा रहेगा, "बड़े आश्चर्य की बात है कि काल
ने उनके जीवन की हत्या कर दी।'' वे उछल पड़े। बोले, ''इस एक वाक्य पर तुम्हें
कविता के कई पुरस्कार मिल सकते हैं।''
मैं पास हुआ।
बहुत वर्षों तक मैं सानंद शोक-संदेश लिखता रहा। कोई लेखक-मित्र मिलता और पूछता
कि आजकल क्या लिख रहे हो? मैं कहता आजकल एक निमंत्रण-पत्र या शोक-संदेश पर काम
कर रहा हूँ। मित्र खुश होते। कहते कि मन लगाकर काम करना। सलाह देकर जाते कि
नेकी कर शोक-संदेश में डाल।
मैं अपने पर घमंड नहीं करता, मगर इन दो आयामों के अतिरिक्त होली-दिवाली-नए साल
पर लिखी मेरी काव्याकुल शुभकामनाओं ने भी कामना के नए प्रतिमान बनाए हैं।
उम्मीद है कि मेरे स्वर्णिम लेखन पर पाठकों की नजर जाएगी... आमीन।